Saturday, January 10, 2009

ग़ज़ल

अगर भूले से आ जाती हवाएं बन्द कमरे में।
तो घुट कर मर नहीं पाती दुआएं बन्द कमरे में।।
सहर की सुर्ख्‍़ा किरनों ने किया महसूस शिद्दत से।
मुसलसल रात भर बरसी घटाएं बंद कमरे में।।
सिवा मेरे न सुन पाया कोई कुछ इस तरह मैंने।
ब-नामे-हिज्र तुझको दीं सदाएं बंद कमरे में।।
जो अपने सख्‍त जुम्लों से करे नंगा सियासत को।
वो पागल रात-दिन काटे सजाएं बंद कमरे में।।
हवाओ! जर्द पत्तों को न छेड़ो शोर होता है।
अधूरा ख्‍वाब बुनती हैं, व़फाएं बंद कमरे में।।
वो दोनों ही मुहज्‍जब हैं, मगर ये बारहा देखा।
हुई हैं जख्‍म आलूदा कबाएं बंद कमरे में।।
बचाना गैर मुमकिन है मुझे दस्ते अजल से तो।
वो क्यों 'सर्वेश' देते हैं दवाएं बंद कमरे में।।

8 comments:

"अर्श" said...

सर्वेश जी बहोत खूब लिखा है आपने ढेरो बधाई जरी रहे ....


अर्श

ss said...

पहली बार आपके ब्लॉग पर आया| सभी शेर एक से बढ़कर एक ख़ास कर पहला| बधाई आपको|

ghughutibasuti said...

बढ़िया लिखा है। कठिन शब्दों के अर्थ भी दे देते तो और अच्छा रहता।
घुघूती बासूती

अमिताभ मीत said...

हवाओं! जर्द पत्तों को न छेड़ो शोर होता है।
अधूरा ख्‍वाब बुनती हैं, व़फाएं बंद कमरे में।।

बेहतरीन ग़ज़ल. हर शेर एक एक बढ़ के एक. क़ायल हो गया आप का. वाह !

Anonymous said...

सहर की सुर्ख्‍़ा किरनों ने किया महसूस शिद्दत से।
मुसलसल रात भर बरसी घटाएं बंद कमरे में।।

Anonymous said...

सहर की सुर्ख्‍़ा किरनों ने किया महसूस शिद्दत से।
मुसलसल रात भर बरसी घटाएं बंद कमरे में।।
har sher khoobsurat hai.

aage bhi likhte rahe.dr satyavir tyagi

सर्वेश चंदौसवी said...

आपने मेरे अश्‍आर पसंद फरमाए। आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया। उम्‍मीद करूंगा कि आगे भी आप इसी प्रकार मेरा हौसला अफजा करते रहेंगे।

Udan Tashtari said...

सर्वेश जी की रचना पढ़कर आनन्द आया. यह बढ़िया ब्लॉग शुरु किया. बधाई एवं शुभकामनाऐं.