Sunday, March 1, 2009

ग़ज़ल


आँखों ने ख्वाबों का हाल बुरा देखा।
'दौलत मंदों को कंगाल' बुरा देखा।।

आने वाला साल तो अच्छा देखेंगे।
माना हमने बीता साल बुरा देखा।।

करने से परवाज उसे डर लगता है।
शायद उसने कोई जाल बुरा देखा।।

एक जरासी लग्जिश परउस रहबर का।
सबने होते इस्त़कबाल बुरा देखा।।

सोते से जागे तो बस्ती वालों ने ।
आँखें मल-मल कर भूचाल, बुरा देखा।।

वो शै तो कमयाब थी, मैंने क्यों उसका।
लम्हा-लम्हा इस्तेमाल, बुरा देखा।।

जो मेरे चेहरे को सा़फ दिखाता था।
उस दरपन में मैंने बाल, बुरा देखा।।

अब्र फ़लक पर ऐसा छाया शाम ढले।
बिन तारों के शब का थाल, बुरा देखा।।

करता था आकाश की बातें जो 'सर्वेश'।
उसने खुद गिर कर पाताल बुरा देखा।।


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